पाओगे
कैसे हमें उनकी निगाहों में कहो
जबकि
हम उनकी धड़कनों में बसा करते हैं..
हमने
अपनी हर एक साँस वार दी उन पर
एक
वो हैं, जो दो-चार धड़कनों का गुमां करते हैं..
ठहरो,
बालिश्तों से क्या नापोगे तुम कद मेरा
हम
वो ज़र्रा हैं, जो तूफ़ानों सा दम भरते हैं..
तुमने
तो कह ली अपनी, और बस कहते ही गए
हम
तो चुप रह के, उनके सजदे किया करते हैं..
तुम
क्या सिखाओगे हुनर, दरिया में बहने का हमें
हम
तो खामोश किनारों से सबक लिया करते हैं..
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आपको सूचित किया जा रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शनिवार (18-04-2015) को "कुछ फर्ज निभाना बाकी है" (चर्चा - 1949) पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत ग़ज़ल ... हर शेर लाजवाब ..
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