मैं फ़िर भी बढ़ूँगी : माया एंजेलो
(अनुवाद : डॉ. गायत्री गुप्ता ‘गुंजन’)
भले तुम इतिहास बना दो मुझको
अपने कड़वे और सफ़ेदपोश झूठ से
जमीन पर गिराकर धूल होने तक
लेकिन फ़िर भी, धूल होकर भी
मैं आगे बढ़ूँगी..
क्या मेरी मुखरता सताती है तुम्हें?
या घिर आये अँधेरों से भी डर लगता है?
क्योंकि लहरा के मैं चलती हूँ कुछ इस तरह
जैसे मचलता हो समन्दर हसीन तेलों का
चाँद-सूरज की तरह, आस (विश्वास) की लहरों की तरह
ज्वार-भाटा की तरह, गिर-२ के भी, उठने के लिए
मैं आगे बढ़ूँगी..
आओ आगे बढ़ो, मुझे तोड़ने के लिए
सिर झुकाने के लिए, पलकें गिराने के लिए
मेरे कन्धों को झुकाओगे तुम आँसू देकर
भले खुश हो लो, मेरी दु:ख भरी चीखें लेकर
पर देखना उस वक्त तुम डर जाओगे
जब मेरे दर्प से चेहरा मेरा खिल जायेगा
सुन्न हो जायेंगे, इन कानों के पर्दे भी तब
जब हँसी गूँजेगी, सिक्कों की खनक से बढ़कर
बींध दो चाहे मुझे शब्दों से अन्तस तक
भले उतार दो कटार अपनी आँखों से
भले उड़ा दो मुझे नफ़रतों की आँधी में
लेकिन हवा होकर भी, खुद को सँभाले
मैं आगे बढ़ूँगी..
क्यों परेशान हो इस तरह मेरे यौवन से?
कि पलकें उठ के तेरी फ़िर से गिर नहीं पायें
मैं तो नाचूँगी अपने हाथों में उठा के गगन
कि जैसे हीरे जड़ा जिस्म लिए इठलाती पवन
शर्म-ओ-हया के खंडहर गिरा के
मैं आगे बढ़ूँगी..
जड़ों में बसे दर्द को झुठलाकर
मैं आगे बढ़ूँगी..
मैं एक लहराता, उछलता सुर्ख समन्दर हूँ
जिसके किनारों ने बन्धन तोड़ दिये हैं सारे
अब दु:ख और डरावनी रातों को भूलकर
मैं आगे बढ़ूँगी..
दिन के उस एक क्षण में
जब दूर-२ तक उजाला होगा
मैं आगे बढ़ूँगी..
चूँकि , मैं अपने पूर्वजों का भेजा हुआ उपहार हूँ
मैं गिरे हुए लोगों का स्वप्न और आशा हूँ
इसीलिए..
मैं बढ़ती हूँ..
आगे बढ़ती हूँ..
और बढ़ती ही जाती हूँ..!
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सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार!
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...