आदिम सभ्यताओं से गुजरते हुये
अहसासों को जगह-२ महकते देखा..
सभ्यताएँ वहाँ वस्त्रों की ओट में सिसकते हुये
दम नहीं तोड़तीं
बल्कि नग्न सौन्दर्य से उठती
सलीके की मादक गन्ध में
मदमस्त हो नृत्य करती हैं..
भावनाओं को बहने के लिए
शब्दों के पुल की आवश्यकता नहीं होती
वे तो एक-दूजे के गले लग कर
मौन से मौन को सम्प्रेषित होती हैं..
विकासशील सभ्यतायें पाती कम खोती अधिक हैं
और पीछे छोड़ती जाती हैं
कच्ची पगडंडियों पर गहरे धँसे हुये
कभी ना लौटने वाले
पैरों के निशान...
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