ख़ाक होने पे यकीं आया कि ज़मीं से बाबस्ता हैं
हम।
वरना तो ख़ुदा होने में कोई कसर बाकी न रही॥१॥
अब तो यूँ कैद हैं खुद की बनाई कब्रों में।
जैसे इस दुनिया से अपनी कोई यारी न रही॥२॥
यूँ सरेआम जिस्म नोंचते हैं अबला का।
क्या उनकी अपने ख़ुदा से ही परदेदारी न रही॥३॥
हम तो जीते हैं यूँ, कि जानते हैं जिन्दा हैं।
वरना जीने की नीयत तुम जैसी, हमारी न रही॥४॥
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अब तो यूँ कैद हैं खुद की बनाई कब्रों में।
जवाब देंहटाएंजैसे इस दुनिया से अपनी कोई यारी न रही ..
तन्हाई के आलम का सिला लिख दिया इस शेर में ... बहुत उम्दा गज़ल है ...
ख़ाक होने पे यकीं आया कि ज़मीं से बाबस्ता हैं हम।
जवाब देंहटाएंइन यकीन की हदों से जान-पहचान पहले मन करता ही नहीं ...
बहुत खूब
बहुत खूबसूरत गज़ल
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन उम्दा गजल ,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST : बेटियाँ,
सुंदर प्रस्तुति......
जवाब देंहटाएंअच्छा लिखा है.काबिल-ऐ-तारीफ .
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लिखा आपने सभी शेर शानदार
जवाब देंहटाएंमरहबा... बहुत गहन सोच | बेहतरीन कविता | आभार
जवाब देंहटाएंकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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जवाब देंहटाएंवाह ,बेह्तरीन गजल .
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बहुत ही उम्दा ग़ज़ल है, लिखते रहिये!
जवाब देंहटाएंहम तो जीते हैं यूँ, कि जानते हैं जिन्दा हैं।
जवाब देंहटाएंवरना जीने की नीयत तुम जैसी, हमारी न रही
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वाह