6 नवंबर 2012

अहसासों की ज़मीं पर...







कभी-२

बैठे रहो

कैनवास के सामने

लगातार

पर नहीं बनता अक्स...

ज़िन्दगी की तरह,

केवल रेखाएँ ही बनती हैं

आडी-टेढी.....


कभी-२

कितना भी सँवारो

घँरौदे को

पर नहीं बनता

खूबसूरत...

ज़िन्दगी की तरह,

बार-२ ढह जाता है

समुन्दर के किनारे.....


कभी-२

कितना भी समझाओ

मन को

प्यार से

पर नहीं सुलझती गिरहें...

ज़िन्दगी की तरह,

लगातार उलझती ही जाती है

एक के बाद एक गाँठ.....


क्यों नहीं होती?

निश्छल, निश्पाप, खिलखिलाती

ज़िन्दगी

मासूम बच्चे की तरह

जहाँ हमेशा प्यार खिले

अहसासों की ज़मीं पर.....!!


        x  x  x  x  x

7 टिप्‍पणियां:

  1. क्यों नहीं होती?
    निश्छल, निश्पाप, खिलखिलाती
    ज़िन्दगी
    मासूम बच्चे की तरह
    जहाँ हमेशा प्यार खिले
    अहसासों की ज़मीं पर.....!!
    वाह !! ये अहसास बेहद खूबसूरत हैं पर बस सवाल बनकर रह जाते हैं

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  2. बहुत ही उम्दा अभिव्यक्ति ,,,,,

    आपकी पोस्ट पर आना अच्छा लगा,,,फालोवर भी बन गया हूँ,मेरे पोस्ट पर आइये,स्वागत है,
    यदि मेरी पोस्ट आपको अच्छी लगे,तो समर्थक बने,मुझे हार्दिक खुशी होगी,,,आभार

    RECENT POST LINK:..........सागर

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  3. क्यों नहीं होती?
    निश्छल, निश्पाप, खिलखिलाती
    ज़िंदगी
    मासूम बच्चे की तरह

    जहां हमेशा प्यार खिले
    अहसासों की ज़मीं पर.....!!

    उम्र की घाटियों से गुज़रते हुए ऐसे सवालात लगातार हमारे रू-ब-रू आ खड़े होते हैं

    बहुत सुंदर डॉ. गायत्री गुप्ता 'गुंजन' जी !

    अच्छी कविता है …

    शुभकामनाओं सहित…
    राजेन्द्र स्वर्णकार

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  4. बहुत खूबसूरती से उकेरे हैं प्रश्न .... ज़िंदगी ही शायद मासूम नहीं रहने देती ....

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