बहुत समय पहले
पढ़ा था कहीं
कि मनुष्य होता है
एक सामाजिक प्राणी
अरस्तू ने कहा था शायद...
तब नहीं पता थे
सामाजिक होने के मायने
नहीं पता था कि
पहनना पड़ता है एक मुखौटा
और दबा देने होते हैं
एहसासात
दिल के भीतर ही कहीं...
नहीं कर पाता विरोध
ये दिल
उन घिसी-पिटी मान्यताओं का
जिन्हें रचा है समाज ने
एक आवश्यक प्रथा के रूप में
और सामाजिक होने की शर्त पर...
काश ! नहीं होते हम सामाजिक प्राणी
लेते हर निर्णय
दिल की ज़मीं पर
तब शायद इतने उठे होते हाँथ
कि कम पड़ जाते आंसू
और खिलखिलाती मुस्कान
हर चेहरे पर
जो छिप गयी है
मुखौटे के पीछे
हमारी सामाजिकता के.....!!
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काश ! नहीं होते हम सामाजिक प्राणी
जवाब देंहटाएंलेते हर निर्णय
दिल की ज़मीं पर
तब शायद इतने उठे होते हाँथ
कि कम पड़ जाते आंसू
और खिलखिलाती मुस्कान
हर चेहरे पर
बेहद सशक्त भाव ...
सामाजिकता में बंधा इंसान .... बहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबेहद सुन्दर प्रस्तुति , वाकई सच कहा आपने
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर कविता |
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर रचना ....
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविता
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