27 मई 2013

गज़ल






ख़ाक होने पे यकीं आया कि ज़मीं से बाबस्ता हैं हम।
वरना तो ख़ुदा होने में कोई कसर बाकी न रही॥१॥

अब तो यूँ कैद हैं खुद की बनाई कब्रों में।
जैसे इस दुनिया से अपनी कोई यारी न रही॥२॥

यूँ सरेआम जिस्म नोंचते हैं अबला का।
क्या उनकी अपने ख़ुदा से ही परदेदारी न रही॥३॥

हम तो जीते हैं यूँ, कि जानते हैं जिन्दा हैं।
वरना जीने की नीयत तुम जैसी, हमारी न रही॥४॥

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10 मई 2013

गीत






क्या ये तुम्हारे प्रेम का प्रतिदान है?


१.     अश्रु का संसार ना साझा किया

 सुख के मोती से मेरा दामन भरा।
               
               दु:ख के वीराने में यूँ भटके रहे
            
               क्या हांथ ना मेरा थामना स्वाभिमान है?

दिल ये मेरा सोच कर वीरान है, क्या ये तुम्हारे...........................


२.     देने का आग्रह ही बारम्बार था
 
 लेने से हरदम ही तुम्हें इन्कार था।

         देके दाता बन गये, सुख पा लिया

         पर क्या लेना याचना का भान है?

नयन मेरे देख कर हैरान हैं, क्या ये तुम्हारे.........................


३.     दो लोक के बदले में लेके दो मुट्ठी भात को

  कृष्ण ने भी तो सुदामा का बढ़ाया मान था।

         उस इक दिवस की आस में बैठे हुए

        जब इस हृदय के प्रेम की खातिर तेरा मस्तक नवेगा॥

नयन जल-धारा बहे अविराम है, क्या ये तुम्हारे.........................


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