‘कला’
गर परिभाषित करना चाहें
इसे
शब्दों में
तो बस ये उद्गार ही
व्यक्त होते हैं
कि
भावनाएँ
जो एक हृदय से प्रस्फ़ुटित
हो
दूसरे के हृदय में साँस
लेती हैं,
कभी उठती है एक हिलोर
जो वायस बनती है
नव दृष्टि, नव सृष्टि
के निर्माण की
कहीं फ़ूटता है एक अंकुर
जो चिन्हांकन करता है
नव कली के प्रस्फ़ुटन
का.....
गर हो उत्कण्ठा
सत्य, शिव और सुन्दर
के
पूर्ण साक्षात्कार की
तो कला के
शरणागत होना ही होगा.....
भले ही बना दिया जाए
व्यापार
और सज गए हों बाजार
मोल लगाने को बैठे हों
खरीददार
पर जो बिक रही है
वो कुछ भी हो
पर कला नहीं हो सकती.....!!
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