18 दिसंबर 2013

अपने-२ आसमान...!






ज्यों-२
तुम्हारे, ख्वाहिशों के पंख
उड़ान भरते हैं
मेरे पैरों तले
एक टुकड़ा जमीन
खिसक जाती है...
मैं जब भी मिटाती
हमारे बीच की दूरी को
सामन्जस्य के इरेज़र से
तुम खींच देते
कहीं ज्यादा बड़ी लकीर
और बढ़ा देते
दो और कदम
अपने आसमाँ की ओर...
और मैं,
अपने आसमाँ तले
छुपा लेती, चुपके से
उन हाथों को
जो उठे थे, कभी
तुम्हारी सफ़लता की
दुआ के लिए.....!!

   x  x  x                                                

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 19-12-2013 को चर्चा मंच पर टेस्ट - दिल्ली और जोहांसबर्ग का ( चर्चा - 1466 ) में दिया गया है
    कृपया पधारें
    आभार

    जवाब देंहटाएं
  2. दुआ तो फिर भी निकलती है मन से ... पर शायद उनकी नज़र नहीं पड़ती ...
    मर्म स्पर्शीय भाव ...

    जवाब देंहटाएं