25 जनवरी 2016

‘यदि’ .. (रूडयार्ड किपलिंग)







‘यदि’ : रूडयार्ड किपलिंग
अनुवाद : डॉ. गायत्री गुप्ता ‘गुंजन’



यदि तुम उस समय भी धैर्य रख सको, जब तुम्हारे आसपास, लोग अपनी असफ़लताओं का दोष तुम पर मढ़ें;
यदि तुम उस समय भी खुद पर विश्वास रख सको, जब सब तुम्हें सन्देह की नज़रों से देखें,
साथ ही, उनके सन्देह को भी जगह दो;
यदि तुम प्रतीक्षा कर सको और ऐसा करते हुये थकान भी महसूस ना करो;
या, झूठ का सामना करते हुये भी, झूठ के पास ना फ़टको;
या फ़िर घृणा से घिरे रह कर भी, उसको आत्मसात ना करो;
और इतना होने के बावज़ूद भी, अपनी अच्छाई और बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन ना करो...


यदि तुम स्वप्न देख सको – किन्तु उसमें खोने से खुद को बचाये रखो;
यदि तुम विचारशील बन सको – किन्तु विचारों को खुद पर हावी ना होने दो;
यदि तुम विजय और विनाश में समान भाव रख सको;
यदि तुम अपनी उन बातों को भी बर्दास्त करने की क्षमता रख सको, जो
धूर्त लोगों द्वारा मूर्खों को फ़ँसाने के लिए तोड़-मरोड़ कर पेश की जाएँ;
या अपनी ज़िन्दगी से जुड़ी चीजों को बिखरा देखकर, निराशा के बावजूद
अपने टूटे-फ़ूटे औजारों से पुनर्निर्माण का हौसला रख सको...


यदि तुम अपनी सारी प्राप्तियों को एक साथ ही दाँव पर लगा सको
और हारने पर दोबारा फ़िर से शुरू कर सको,
फ़िर भी कभी मुँह से एक शब्द ना कहो;
जब अपनी बारी की प्रतीक्षा करते-२
तुममें सिर्फ़ अपनी इच्छाशक्ति के अलावा और कुछ शेष ना रह जाये
उस समय तुम अपने दिल को माँसपेशियों और तन्तुओं सहित
अपने हिस्से का काम करने के लिए उत्साहित कर सको...


यदि तुम भीड़ में भी अपनी पहचान बरकरार रख सको;
या राजा के साथ के बावजूद – अपनी जड़ें ना भूलो;
यदि ना तो कोई शत्रु और ना ही कोई मित्र तुम्हें सताने की क्षमता रख सके;
यदि तुम सबके साथ समानता का व्यवहार रख सको;
यदि तुम ना भुलाये जा सकने वाले एक मिनट को बेहतरीन ६० सेकण्ड की दौड़ से भर सको;
तो ये धरती और इसकी सारी सम्पदा, तुम्हारी होगी;
और – इससे भी बढ़कर – तुम एक इन्सान कहलाओगे, मेरे बच्चे!


                                 *****


15 जनवरी 2016

मैं फ़िर भी बढ़ूँगी.. (माया एंजेलो)





   मैं फ़िर भी बढ़ूँगी : माया एंजेलो
(अनुवाद : डॉ. गायत्री गुप्ता ‘गुंजन’)


भले तुम इतिहास बना दो मुझको
अपने कड़वे और सफ़ेदपोश झूठ से
जमीन पर गिराकर धूल होने तक
लेकिन फ़िर भी, धूल होकर भी
मैं आगे बढ़ूँगी..


क्या मेरी मुखरता सताती है तुम्हें?
या घिर आये अँधेरों से भी डर लगता है?
क्योंकि लहरा के मैं चलती हूँ कुछ इस तरह
जैसे मचलता हो समन्दर हसीन तेलों का

चाँद-सूरज की तरह, आस (विश्वास) की लहरों की तरह
ज्वार-भाटा की तरह, गिर-२ के भी, उठने के लिए
मैं आगे बढ़ूँगी..


आओ आगे बढ़ो, मुझे तोड़ने के लिए
सिर झुकाने के लिए, पलकें गिराने के लिए
मेरे कन्धों को झुकाओगे तुम आँसू देकर
भले खुश हो लो, मेरी दु:ख भरी चीखें लेकर

पर देखना उस वक्त तुम डर जाओगे
जब मेरे दर्प से चेहरा मेरा खिल जायेगा
सुन्न हो जायेंगे, इन कानों के पर्दे भी तब
जब हँसी गूँजेगी, सिक्कों की खनक से बढ़कर

बींध दो चाहे मुझे शब्दों से अन्तस तक
भले उतार दो कटार अपनी आँखों से
भले उड़ा दो मुझे नफ़रतों की आँधी में
लेकिन हवा होकर भी, खुद को सँभाले
मैं आगे बढ़ूँगी..


क्यों परेशान हो इस तरह मेरे यौवन से?
कि पलकें उठ के तेरी फ़िर से गिर नहीं पायें
मैं तो नाचूँगी अपने हाथों में उठा के गगन
कि जैसे हीरे जड़ा जिस्म लिए इठलाती पवन

शर्म-ओ-हया के खंडहर गिरा के
मैं आगे बढ़ूँगी..

जड़ों में बसे दर्द को झुठलाकर
मैं आगे बढ़ूँगी..


मैं एक लहराता, उछलता सुर्ख समन्दर हूँ
जिसके किनारों ने बन्धन तोड़ दिये हैं सारे
अब दु:ख और डरावनी रातों को भूलकर
मैं आगे बढ़ूँगी..

दिन के उस एक क्षण में
जब दूर-२ तक उजाला होगा
मैं आगे बढ़ूँगी..


चूँकि , मैं अपने पूर्वजों का भेजा हुआ उपहार हूँ
मैं गिरे हुए लोगों का स्वप्न और आशा हूँ

इसीलिए..

मैं बढ़ती हूँ..

आगे बढ़ती हूँ..

और बढ़ती ही जाती हूँ..!


       *****