20 जून 2012

जिन्दगी सा कुछ...!



कल जा रहा था रास्ते में
अगले ही मोड़ पर
ज़िन्दगी नजर आ गई,
टहलते हुए...
मैनें पूछा, कैसी हो ?
मुस्कुराते हुए बोली,
मजे में हूँ...
मैंने कहा, कभी घर आओ
साथ बैठकर चाय पियेंगे
कुछ तुम अपनी कहना
कुछ हम अपनी कहेंगे...
ज़िन्दगी मुस्कुरायी
हल्का सा लजाई
और हम भी लौट चले
उलटे पांव घर को
सोचते हुए, कि
चीनी और चाय-पत्ती तो
अभी बची ही होगी
रसोई के दूसरे तल्ले पे रखे
कांच के मर्तबान में.....!!

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छे भाव |
    बधाई ||

    यह दर्द कहाँ से आया है, क्या है यह दूजा तल्ला |
    रहते हैं ताबूत सजाये, बंद पड़ा क्या उसका पल्ला |
    किसने चाय बनाई होगी, पत्ती सुगर बचाई होगी -
    किसको कथा सुनाती हो तुम, मचा रही क्यूँ हल्ला ??

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  2. जीवन की असलियत में उतरना ही पड़ता है अंत में ... अच्छी भाव लिए रचना ...

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  3. सच है आज अतिथि को चाय पिलाना भी शायद भारी हो गया है ...

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  4. बहुत ही बढ़िया गहन भाव अभिव्यक्ति...

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  5. सच अन्दर यूँ हीं चहलकदमी करता है ...

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